पहाड़ी भाषाएँ ये वे भाषाएँ और बोलियाँ हैं जो भारत के दक्षिणी हिमालय के प्रदेशों (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर) में और नेपाल में बोली जाती हैं । भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण (People’s Linguistic Survey of India) के अनुसार भारत में कुल मिलकर ७८० भाषाएँ उपयोग में हैं, उनमें से पहाड़ी भाषा समुदाय में ९० भाषाएँ और बोलियाँ आती हैं।

जॉर्ज ग्रियर्सन ने “भारतीय भाषाई सर्वेक्षण” (G.Grierson. Linguistic Survey of India) में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण करते समय पहाड़ी भाषाओं को तीन समूहों में बाँट दिया है: पश्चिमी, मध्य और पूर्वी पहाड़ी भाषाएँ। पूर्वी पहाड़ी भाषा समूह में नेपाली, पाल्पा, जुम्ली, डोटेली और बैतडेली भाषाएँ शामिल हैं, ये नेपाल में बोली जाती हैं। मध्य पहाड़ी समूह में दो भाषाएँ हैं : कुमाउँनी तथा गढ़वाली जो वस्तुत: स्वयं अनेक बोलियों के समूह हैं। यह भाषाएँ भारतीय प्रदेश उत्तराखंड में यमुना नदी और नेपाल की पूर्वी सीमा के बीच में प्रचलित हैं। पश्चिमी पहाड़ी भाषाएँ हिमालय में चनाब नदी और यमुना नदी के बीच में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड तथा जम्मू और कश्मीर में बोली जाती हैं। पहाड़ी भाषाओं का यह वर्गीकरण वैज्ञानिक साहित्य में आज तक बहुत प्रसिद्ध है। हालांकि कुछ आधुनिक शोधकर्ताओं (Zoller 2011, Hendriksen 1986) के अनुसार यह वर्गीकरण भाषाई विशेषताओं के आधार पर नहीं वर्ना उस समय मौजूद प्रशासनिक सीमाओं के आधार पर बना है। अधिकतर पूर्वी पहाड़ी भाषाओं और बोलियों का अभी तक पर्याप्त शोध नहीं किया गया और उनका संतोषजनक भाषाई अध्ययन नहीं हुआ है इसलिए सही वर्गीकरण करना बहुत मुश्किल है। इसी कारण से हम उन भाषाओं के लिए दूसरा नाम प्रयोग करेंगे – हिमाचली भाषाएँ, क्योंकि ये भाषाएँ ज़्यादातर हिमाचल प्रदेश में बोली जाती हैं। सामान्य शब्द “पहाड़ी भाषाएँ” हमारी साइट में भौगोलिक अर्थ में प्रयुक्त है।

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हिमाचली भाषाएँ और बोलियाँ बोलने वालों की कुल संख्या ६ करोड़ हैं (Zoller: 2011, 199) । इस भाषा समूह में विभिन्न अनुमानों के अनुसार ३० से ६० भाषाएँ और बोलियाँ हैं, पर उनमें से कोई भी आधिकारिक भाषा नहीं । मुख्यतः यह भाषाएँ दैनिक संचार के लिए प्रयुक्त होती हैं, उनका लिखित रूप नहीं, उन्हें स्कूलों में भी पढ़ाया नहीं जाता। विभिन्न बोलियों के बिच में ध्वन्यात्मक और व्याकरणिक अंतर बहुत है, कभी-कभी अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले लोग एक दूसरे को समझ नहीं पाते। आज-कल यह भी होता है कि हिमालय क्षेत्रों में लोगों द्वारा अपनी स्थानीय भाषाओँ को कम और हिंदी तथा अंग्रेजी को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। इसलिए कुछ लोग अपने बच्चों के साथ हिंदी बोलना पसंद करते हैं और फिर बच्चे अपनी स्थानीय भाषा नहीं बोल पाते। इस तरह स्थानीय बोलियों और उनके साथ-साथ मौखिक परम्पराओं तथा लोक-साहित्य को लुप्त होने का खतरा हो सकता है।
इसीलिए आधुनिक भाषाविज्ञान के लिए न केवल हिमाचली भाषाओं का शोध करना बल्कि लोगों को उनकी भाषाओं का महत्त्व दिखाना भी बहुत ज़रूरी काम है। आज-कल हमारी टीम कुलुई भाषा पर शोध कर रही है ।